नेपाल में मधेसियों को बराबरी के आधार पर आखिर कब इंसाफ मिलेगा ?
मधेसियों की तादात नेपाल में डेढ़ करोड़ से भी ज्यादा हैं।मेची से लेकर महाकाली तक मधेसी खास तौर पर बसे हुए हैं। वैसे कुछ लोग पहाड़ी इलाकों में भी बसे हैं। लेकिन यह समुदाय सामाजिक पहचान बनाने से भी महरूम हैं।

मधेसियों की तादात नेपाल में डेढ़ करोड़ से भी ज्यादा हैं।मेची से लेकर महाकाली तक मधेसी खास तौर पर बसे हुए हैं। वैसे कुछ लोग पहाड़ी इलाकों में भी बसे हैं। लेकिन यह समुदाय सामाजिक पहचान बनाने से भी महरूम हैं। इन लोगों को राजनीतिक हक भी नहीं मिले हैं। वैसे मधेसी समाज के कल्याण के लिए और भी कई संगठन काम कर रहे हैं।लेकिन जो भी संगठन हैं,वे राष्ट्रीय स्तर के नहीं हैं।हम चाहते हैं कि पूरे मधेसी समाज को राष्ट्रीय स्तर पर संगठित होना चाहिए,तभी इस समाज की तरक्की मुमकिन होगी। देखा जाएं तो आज भी कई लोग अपने आपको मधेसी कहने पर शर्माते हैं। उनके रोजगार और कारोबार को बढ़ावा देना होगा। जिसे उनकी माली तरक्की हो सके।आज़ादी में बहुत सारी चीजें शामिल हैं। आज़ादी और बराबरी की लड़ाई इंसानी सभ्यता का एक ऐसा हिस्सा रही हैं, जिसे सभी समुदायों ने अपना फर्ज समझकर पूरा किया हैं। अब मधेस के लोग किसी के गुलाम नहीं हैं।गुलामी का पट्टा अब टूट चुका हैं। किसी भी बात के लिए अब वे किसी के मोहताज नहीं हैं। भारत जिसके साथ आम मधेसियों के साथ खून का रिश्ता हैं। उससे अलग थलग कर देने व मधेसियों की गर्दन दबाकर हत्या करने के लिए भारतीय सीमा को सील कर देने की योजना के तहत पासपोर्ट व्यवस्था की तैयारी भी होने की संभावना हैं। लालच और दबाब देकर मधेस के भाइयों से भारत विरोधी नारे लगवाकर राष्ट्रवाद का ढोंग किया जा रहा हैं। मधेसी समुदाय के साथ सदियों से भेदभाव किया जा रहा हैं बहुसंख्यक होते हुए भी नेपाल में केवल पहाड़ियों का ही दबदबा हैं।इसलिए मधेस समाज अपने हक,पहचान और इज्जत के लिए बार बार लड़ते आया हैं। लोकतांत्रिक,गणतांत्रिक और प्रजातांत्रिक व्यवस्था में भी मधेसियों का शोषण और उनसे भेदभाव हो रहा हैं। नेपाल में संसदीय निर्वाचन क्षेत्र का निर्धारण ठीक से नहीं हुआ हैं। पहाड़ी जिलों में चार हजार और दस हजार की आबादी पर संसदीय क्षेत्र का निर्धारण हैं। वहीं मधेस में एक लाख पर संसदीय क्षेत्र का निर्धारण किया गया हैं। पहाड़ी शासक वर्ग ने जानबूझकर संसद में मधेस को कम सीटे दी हैं। इसलिए कि कभी बहुसंख्यक मधेसी समुदाय की सरकार नहीं बन सके। संविधान बनाने के लिए बनने वाली सीटो का बंटवारा भी उसी गैर बराबरी पर आधारित हैं,यह मधेसियों को मंजूर नही हैं। मधेस को कमजोर बनाएं रखने में बहुसंख्यक होने का अहंकार भी एक अहम वजह हैं,तो दूसरी तरफ अल्पसंख्यक,आदिवासी,जनजाति, दलित व पिछड़ी जातियां छोटेपन की शिकार हैं। मधेस का साहित्य भी बहुत पीछे हैं।एक भाषा एक देश बनाने के चक्कर में गैर नेपाली भाषाओं को दबाकर रखा गया।इसलिए मधेस की भाषाओं का साहित्यिक विकास नहीं हो पाया। मधेस राज्य अभियान द्वारा जारी किए गए नक्शे में मधेस के नेपाल में 20 जिले हैं। प्रस्तावित मधेस राज्य का क्षेत्रफल नेपाल के कुल भूभाग का 23 फीसदी यानी 34 हजार 019 वर्ग किलोमीटर हैं। पूर्व से पश्चिम तक मधेस इलाके की लंबाई पांच सौ मील और उत्तर से दक्षिण की चौड़ाई 20 मील हैं। जंगलों की अंधाधुंध और बढ़ती आबादी से इस इलाके में जमीन के बंटवारे को गलत सरकारी नीतियां बनने लगी।इससे भूसामंतवादी सामाजिक बनावट का जन्म हुआ जिसे साम्राज्यवादी अंग्रेजों और परिवारवादी राणाओं की तागत के बीच पनपने का माहौल मिला,साल 1949 और 1960 के राजनीतिक बदलाव ने उस सामाजिक बनावट को बदलने के बजाय और भी मजबूत किया। साठ के दशक की शुरुआत में सरकार ने तराई में पहाड़ी लोगों को फिर से बसाने की योजना शुरू की। इस योजना में तराई के मधेसी परिवारों को हिफाजत देने की सोच की बेहद कमी थी। वैसे साल 1952 में भूमि सुधार आयोग,साल 1955 का शाही ऐलान,1957 का भूमि ऐंन,1959 बिर्ता खारेजी कानून,1963 भूमि एन,1964 भूमि संशोधन ऐंन जैसे तमाम कानूनों के जरिए भूमि वितरण प्रणाली में सुधार करने का ढ़ोल बहुत बार पीटा गया।लेकिन इन सबके पीछे एक ही सरकारी मकसद काम कर रहा था। मधेस इलाके में पहाड़ी लोगों को फिर से बसाने की योजना महज नाटक भर थी।इस की वजह से अपने ही इलाके में मधेसियों की संस्कृति आगे न बढ़े और उनमें कभी एकता ही न हो। नीति बनाने वालों में मधेस के विरतावाल और जमींदारों के पैठ की वजह से कानून के उचित प्रावधानों को भी बेकार कर दिया।बताया जाता हैं कि भूमि सुधार की सरकारी कोशिश दात्री राष्ट्र को दिखाने की महज नाटक भर होता था।
मधेस की जमीन पर दोबारा बसाने के नाम पर पहाड़ी समुदायों को फिर से बसाकर सांकृतिक कब्जा करने वाली नेपाल सरकार को जीता हुआ प्रदेश और खुद को विजेता समझने की सोच में कोई बदलाव नहीं आया। मधेसियों को बराबरी के आधार पर कभी इंसाफ नहीं मिला।इसके विपरीत यहाँ के शासक तबका उनके साथ दूसरे दर्जे के नागरिक जैसा बरताव करता आ रहा हैं। मधेसियों की एकता के प्रतीक हिन्दी भाषा को विदेशी भाषा बताकर उस पर पाबंदी लगा दी गई। केवल खस नेपाली भाषा को चलाने की सरकारी मुहिम शुरू हुई। साल 1951 में कुलानंद झा की अगुआई में तराई कांग्रेस बनाई गई। 1962 में तराई की आवाज़ को बुलंद करने के लिए रघुनाथ राय की अगुआई में तराई मुक्ति मोर्चा बनाया गया। इसी तरह रघुनाथ ठाकुर ने मधेसी जन क्रांति दल नामक संगठन बनाकर आंदोलन को आगे बढ़ाया। रघुनाथ ठाकुर,शनिश्चर चौधरी,सत्य नारायण पाठक,नन्दू शाह,शोभित चौधरी,सत्यदेव मणि त्रिपाठी,डॉ. लक्ष्मी नारायण झा जैसे लोगों ने मधेस राज्य व मधेसी समस्या को हल करने के लिए अपने आप को न्योछावर कर दिया। नेपाल की कुल आवादी का 52 फीसदी मधेसी हैं लेकिन नेपाल की 205 सीटों वाली संसद में कभी भी उनकी अगुआई 30 फीसदी से ज्यादा नहीं रही। आज भी नेपाली संसद और शासन में नेपाल के पहाड़ी खस समुदाय के डेढ़ करोड़ से ज्यादा मधेसियों की राष्ट्रीयता को लेकर शक भरा हुआ हैं। चुनाव,संसद,तालीम,न्यायिक सेवा,पुलिस प्रशासन, लोक सेवा वगैरह क्षेत्र में आज भी मधेसियों को दर किनार करने की नीति कायम हैं। नेपाल के बड़े राजनीतिक दल कांग्रेस, कम्युनिस्ट के साथ साथ कोई भी दूसरा बड़ा दल मधेस की समस्या को गंभीरता से उठाने की जरूरत ही महसूस नहीं करता। पंचायत काल में ही मधेसी समस्या को लेकर बनी नेपाल सदभावना परिषद और अपने स्थापना काल से ही मधेसी समस्या के लिए लड़ने वाली नेपाल सदभावना पार्टी को भी साम्प्रदायिक के चश्में से देखने वाली नेपाल सरकार ने नेपाल सदभावना पार्टी को भी इसी दोषी चश्में से देखा। नेपाल में मधेसियों की बहुत सारे नेता हैं। लेकिन शुरू से हाल तक मधेसियों की नेताओं का मूल्यांकन किया जाय तो मधेस के हक अधिकार और पहचान के लिए आवाज़ उठाने वाले एक ही नेता थे जिनका नाम स्व.गजेंद्र नारायण सिंह थे। लेकिन वर्तमान में कोई कांगेस के भरिया तो कोई कम्युनिस्ट के पिछलग्गू के रूपमें रहते आया हैं। आवश्यकता हैं कि मधेसियों को आपसी समझदारी,समान्यजस्य और सदभावनाओं को अभिवृद्धि करना पड़ेगा।तभी मधेसियों को दुःख-दर्द तथा अपनी समस्याओं से निजात मिल पायेगा। देश मे फिल वक़्त पूर्ण लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना होना बेहद जरूरी हैं। इसमें सभी जातियों के लोग बराबरी के हक के साथ मधेसी जनजाति और सभी मिलकर राष्ट्र के निर्माण में सहभागी हो सके। नेपाल में मधेसियों को गई गुजरी जिंदगी जीने के लिए मजबूर किया गया हैं।उनमें सब कुछ कर सकने की कूवत हैं। लेकिन केवल मधेसी होने की वजह से उन्हें सभी मौकों से अलग रखा गया हैं।इसके खिलाफ खुलकर सामने आना होगा। अब यहां के गुलाम नहीं हैं।गुलामी का पट्टा अब टूट चुका हैं। किसी भी बात के लिए अब वे किसी के मुहताज नहीं हैं।अब वह अपनी जिंदगी के मालिक खुद हैं।मधेस की धरती अब केवल मधेसियों की हैं। मधेसोयों को जितनी जल्दी हो सके नेपाल के प्रशासन, लोक सेवा,कारोबार व तरक्की के खास क्षेत्र में बराबरी का मौका मिले। इसी में नेपाल सरकार की भलाई हैं। मधेसियों को कब तक राष्ट्रीयता की अग्नि परीक्षा में जलाया जाएगा ? राष्ट्र भक्ति की कसौटी में कब तक उसे घोटा जाएगा ? कायरता की परिभाषा में कबतक कैद किया जाएगा ? मधेसी की जख्मों को भुनाकर मौज उड़ाने वालों की जमात में पहाड़वासी ही नहीं हैं, बल्कि मधेसी की मुखौटे में छिपे दोधारी तलवार भी हैं। मधेस क्षेत्र के विकास और मधेसियों के उत्थान के लिए सभी को दलीय घेराओं से ऊपर उठना पड़ेगा। तभी मधेसी समाज नेपाल की सियासत व तिजारत में अपना वजूद बना पाएगी।
लेखक एवं पत्रकार - प्रदीप कुमार नायक